क्यो ली देवव्रत ने भीष्म प्रतीज्ञा और कैसे हुवा शांतनु और सत्यवती का विवाह?| kyo li devvrat ne bhisham pratigya or kese huva satyvati or shantanuka vivah( hindu Mythology)


क्यो ली देवव्रत ने भीष्म प्रतीज्ञा और कैसे हुवा शांतनु और  सत्यवती का विवाह?kyo li devvrat ne bhisham pratigya or kese huva satyvati or shantanuka vivah ( hindu Mythology)


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केसे प्राप्त हुआ सत्यवती को शादिसे पहले पुत्र ?| kese prapt huva satyavtiko shadise pahale putra?

देवव्रत का युवराज बनाना | Devvrat ka yuvraj banana

देवी गंगाने देवव्रत को शांतनु को सोप दियाथा। अपने पुत्र को पाकर महाराज शांतनु बड़े खुश थे। देवव्रत का आचरण, उसका जनता के प्रति प्रेम, बड़ो के लिए आदर और उसके अनगिनत गुण महाराज शांतनुके मन मे घर कर गए थे। उन्हें अपने पुत्र की योग्यता पर पूरा भरोसा था। उन्होने एक दिन राज सभा बुलाकर देवव्रत को सभी मंत्री यो के सहमतीसे  युवराज घोषित कर दिया । देवव्रत ने पिता की आज्ञा का मान रखते हुए युवराज पद ग्रहण कर लिया।

महाराज शांतनु अब धीरे धीरे अपनी सारी जिमेदारी अपने पुत्र देवव्रत पर डालने लगे और राज्य कार्यभार में अपना सहभाग कम करने लगे। अब शांतनु निच्छिन्त थे । उन्हें अपने पुत्र पर पूरा भरोसा था और वह एक महान राजा बनेगा, इसका उनको यकीन था। महाराज शांतनु अपना ज्यादातर वक्त मनोरंजन के कार्य मे , शिकार के लिए या कही पे घूमने के लिए व्यतीत करते थे। लेकिन उनके मन की गहराईयों में कही ख़ालीपन था । जो गंगा छोड़ कर गई थी । पहले तो राज्य कार्यभार के कारण वक्त निकल जाता ,लेकिन अब जब उन्होंने राज्य कार्यभार में अपना सहभाग कम कियाथा तो उन्हें वह ख़ालीपन एक काटे की भांति चुभता था । दिन तो फिर भी कट जाता पर रात का खाली समय बड़े मुश्किल से कटता।



शांतनु और सत्यवती की भेंट | shantanu or satyavtiki bhet

ऐसेही एक दिन महाराज शांतनु शिकार के लिए जंगल मे गए थे । शिकार का पीछा करते करते वह अपने साथ आये हुए सैनिको से आगे निकल आये। शिकार तो उनके हात नही लगा और उनका घोड़ा भी थक गया था।  इसलिए वह उसे पाणी पिलाने के लिए पास ही बहती यमुना की ओर ले गए। जब घोड़ा पाणी पी रहाथा तब उन्हें हवामें बहती बोहत ही मधुर सुगंध आयी। वह अपने आप को रोक नही पाए और उस सुगंध की दिशा में उसका मूल खोजने निकल पड़े। कुछ समय चलने के पच्छत , वह एक नाव के पास पोहचे और वहा पर उन्होंने एक सुंदर लड़की को देखा। नजाने उन्हें ऐसा क्यो लगा कि वह सुगंध इसी लङकीसे आ रही है। उस सुंदर लड़की को देखने के बाद वह पहली बार देवी गंगा को छोड़कर किसी और के बारेमे सोच रहे थे। एक मोहक सुंदरी जो उन्हें अपनी ओर आकर्षित कर रही थीं।
तो उन्होंने पास जाकर उससे कहा ," हे देवी , तुम्हारा नाम क्या है और तुम्ह यहा क्या कर रही हो।"
उनकी बात सुन उस लङकीने कहा," मेरा नाम सत्यवती है और में यह पर नाव से लोगोको यमुना पार कराती हु।"
" तुम्हे यह काम शोभा नही देता, में तुम्हे देख कर तुम्हसे प्रेम करने लगा हु।में महाराज शांतनु हु। में तुमसे शादी करना चाहता हु। तुम्ह मेरे साथ चलो।"
"शमा करे महाराज अगर आप मुजसे शादी करना चाहते हैं तो आपको पहले मेरे पिताजी से पूछना पड़ेगा। अगर उन्होंने अनुमति  दी तोही में आपसे शादी कर सकुंगी।"
महाराज शांतनु उसकी बात मान गए और दूसरे दिन उसके पिताजिसे मिलने को आने का वचन दे कर चले गए।


निषाद राज की शांतनु के सामने शर्त। nishad raj ki shantanu ke samane sharth

महाराज राजमहल लोटे तो उनकी प्रसन्नता देख देवव्रत भी बोहत खुश हुए। उन्होने पहली बार  अपने पिता को इतना खुश देखा था।
उधर सत्यवती ने भी सारी घटना अपने पिता को बता दी थी। उसे ऐसे लगा जैसे पिता को कोई आश्चर्य नही हुवा इस बातका, लेकिन वह यह विचार छोड़ अपने विचार में फिर से खो गई। उसे भी महाराज शांतनु पसंद आये थे। और उसे यह लगता था कि उसके पिता इसके लिए  विरोध नही करेगे। करेगे भी कैसे , उनके बेटी के लिए इससे अच्छा वर मिल ही नही सकता।

दूसरे दिन महाराज शांतनु अपने कहे अनुसार सत्यवती के घर पोहच गए। निषाद राज ने महाराज का यथोचित स्वागत किया।
महाराज ने स्वागत के बाद सरल ही उनसे कह डाला," मुझे आपकी पुत्री सत्यवती पसंद है। में उससे शादी करना चाहता हूँ।"
निषाद राज ने उत्तर दिया," यह तो मेरा भाग्य है आप जैसा वर मेरी पुत्री को मिलेगा। परंतु....."
" परंतु  क्या ? बोलिये निषाद राज।"
" परंतु मेरी एक शर्त है।"
" में महाराज हु ओर आपकी हर शर्त पूरी कर सकता हूं। बेझिझक बोलिये।"
" में आपसे वचन चाहता हु की मेरी पुत्री की संतान ही हस्तिनापुर के राज सिंहासन पर बेठेगी।"
यह बात सुनकर महाराज सुन्न हो गए। उन्होंने पहलेही देवव्रत को युवराज घोषित कर दियाथा। ओर वह गुणों में भी श्रेष्ठ था।
" यह असंभव है । मेने देवव्रत को उत्तर अधिकार घोषित कर दिया है। और में मेरा प्रेम पाने के लिए किसीका अधीकार नही छीन सकता। आप कुछ ओर मांगे।"
" नही महाराज यही मेरी शर्त है। में नही चाहता कि मेरी पुत्री के पुत्र राजमहल में गुमनामी की जिंदगी जीये।"
"लेकिन मेरा पुत्र युवराज हैं। इसका मतलब वही आगे का राजा बनेगा। में कैसे उसके ओर से आपको वचन दे सकता हु।"
" तो महाराज मुझे शमा करे , यह विवाह नही हो सकता।"
यह बात सुन महाराज शांतनु वहासे चले आते है।
शांतनु को जाता देख ,सत्यवती उसके पिता के पास आती है और बोलती है,"आपने ऐसा क्यो किया ? आप जानते थे कि उन्होंने देवव्रत को युवराज घोषित कर दिया है। फिर भी आपने ऐसा क्यो किया?,"
" हा में जानता हूं। लेकिन मेने यह तुम्हरी खुशी के लिए ही किया है।"
"खुशी....इसमें मेरी खुशी कैसे हुई? मेरी खुशी तो महाराज के साथ है।"
" शायद तुम्ह भूल गई। पराशर ऋषि ने कहाथा तुम्हारे भाग्य में राज योग है। तो राजयोग आएगा। पर में तुम्हारे पुत्रो को भी राज योग दिलाना चाहता हु। इसलिए मैंने ऐसा किया।"
पराशर ऋषि का नाम सुनकर वह चुप हो गईं। वह अतीत के वह पने नही खोलना चाहतिथि जो उसका भविष्य जला सकते हैं। फिर उसने बात आगे नही बढ़ाई।

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देवव्रत की भीष्म प्रतिज्ञा | devvrat ki bhisham pratigya

जब महारज राज महल लोटे तो सीधे अपने कक्ष में लौट गए।
निषाद की बातों ने उन्हें पूरा झगझोड़ के रख दियाथा। यह कैसी मांग थी। में कैसे अपने प्रिय पुत्र की बलि चढ़ाऊँ अपने स्वार्थ के लिए। लोग क्या कहेंगे? राजा ने स्री मोह में पुत्र का हक छीन लिया। लोगो से पहले में खुद ही ऐसा कीव सोच राहाहु। में इतना निष्ठुर नही हु। में अपने सुख के लिए किसीके साथ अन्यान्य नही कर सकता..नही कर सकता....नही कर सकता.....

महाराज अब दुःखी रहने लगे थे। उन्हें बस सत्यवती याद आती थी। देवव्रत ने  उनको इतना दुःखी पहले कभी नही देखा था। उंसने महाराज से बात भी की लेकिन उससे उसे कुछ फायदा नही हुवा ओर महाराज बताते भी क्या? जो था वह उनके बस के बाहर का था। वह अब बस चुप रहकर देख रहे थे।

लेकिन देवव्रत चुप रहने वालों मेसे नही था। उन्होने महाराज के साथ रहने वाले मंत्रियोको बुलाया। उनसे उन्होंने सारी बात निकाल ली। पिता को खुश रखना एक पुत्र का कर्त्तव्य है यह सोचकर वह आगे के कार्य को लग गए।

देवव्रत उसी दिन निषाद राज से मिलने के लिए पोहच गए। निषाद राज देवव्रत को देख कर चौक गए। उन्हें तो महाराज की आने की उम्मीद थी। उन्होंने देवव्रत का स्वागत किया। और आने का प्रयोजन पूछा। इसपर देवव्रत ने कहा,"  आप जानते हैं मेरे आने का प्रयोजन। में आपकी पुत्री का हात मेरे पिता महाराज शांतनु के लिय मांगने आया हु।"
"ऐसा पहली बार हुवा होगा कि पुत्र अपने पिता के लिए किसीका हात मांग रहा है।"
"आप बातों को घुमाइये मत आप क्या चाहते हैं बस यही बात कीजिये।"
" में तो मेरी पुत्री का हात महाराज को देने के लिए तैयार हूं। लेकिन मेरी एक शर्त हैं। पर महाराज ने कहा जो उनका नही है । वह मुझे कैसे दे सकते है।"
" महाराज ने बिलकुल सही कहाथा। लेकिन जो मेरा है वह तो में आपको दे सकता हूं। इसलिये में ऐसी प्रतिज्ञा करता हु की में मेरा राजसिंहासन के उपर का हक छोड़ राहाहु और जो पुत्र महाराज शांतनु और सत्यवती को होगा वही राज सिहासन पर बैठे गा।"
"आप धन्य हैं गंगापुत्र , आपकी पितृ भक्ति महान है। लेकिन जिस प्रकार आपके पिता आपके बारेमें वचन नही दे सकते उसी प्रकार आप भी आपके संतान के बारेमे वचन नही दे सकते।"
"कहना क्या चाहते है आप?"
"क्या पता आपके बाद आपके पुत्रो ने राज सिहासन पर अपना हक मांगा तो ? उन्हें कोन रोकेगा? "
यह बात सुनकर देवव्रत बोले,"इसका भी हल है मेरे पास।
में गंगापुत्र देवव्रत आकाश , धरती ,जल , वायु ,अग्नि इन पंच महाभूतों को साक्षी मानके शपथ लेता हूं की में आजीवन ब्रम्हचारी रहुगा और जबतक में जीवित हु तब तक हस्तिनापुर के सिंहासन पर बैठे हुए राजा की सेवा में  अपना जीवन व्यतीत करुगा।"
उनकी यह प्रतिज्ञा सुन कर निषाद राज ख़ुश हो गए। और उन्होंने शादीके लिए अपनी सहमति दे दी।


शांतनु का देवव्रत को वरदान | shantanuka devrat ko vardan

देवव्रत हस्तिनापुर अपने महल में आये। उन्होंने निषाद राज शादी के लिए मान गए , यह बात अपने पिता को बता दी। यह बात सुनकर शांतनु खुश हो गए। लेकिन जब उन्हें सारा वृतान्त पता चला तो वह बोहत दुःखी हुए। तब देवव्रत ने उन्हें समजाते हुए कहा में ऐसा अभागा पुत्र नही बनना चाहता जो अपने पिता को सुख नही दे पाया औऱ उनके दुःख का कारण बन गया। में बस आपको खुश देखना चाहता हु।
देवव्रत की यह बाते सुन शांतनु भावुक हो गए और उन्होंने कहा,"आज में धन्य हो गया तुम्हारे जैसा पुत्र प्राप्त कर। में ने जो आजतक पुण्य कमाये है, उससे में तुम्हे इच्छा मृत्युका वरदान देता हूँ और तुम्हारी भीषण प्रतीज्ञा के कारण तुम्ह भीष्म नामसे प्रसिद्ध हो जाओगे।"
इस तरह सत्यवती और महाराज शांतनु का विवाह हो जाता हैं।

लेकिन मेरे विचार में यह सिर्फ भीष्म का पितृ मोह था जिसने एक युवराज का कर्तव्य भुलाकर पिता के सुख के लिए अपना जीवन व्यतीत कर दिया और शायद यही से महाभारत के उन्ह आखरी अठारह दिन की नीव रखी गई।
और वह धृतराष्ट्र का पुत्र मोह था जो राजा के कर्तव्य पर भारी पड़ गया। और उसने महाभारत के रण में सबकों खड़ा कर दिया।


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